रायगढ़, जशपुर और सरगुजा जिलों में वनों पर आधारित अन्य भी छोटे-छोटे काम किये जाते हैं, जिनमें प्रमुख हैं – साल या पलाश के पत्तों से पत्तल-दोने बनाना, एक प्रकार की जंगली घास से झाड़ू बनाना या पेड़ों की छालों से रस्सी बनाना.
दोना-पत्तल बनाने के लिए पहले पत्ते इकट्ठे किये जाते हैं और बाँस की पतली सींकों या काडियों के छोटे टुकड़ों से पत्तों को मनचाहे आकार में सिल दिया जाता है. ये पत्तल-दोने भोजन के लिए प्राचीन ‘यूज़ एण्ड थ्रो’ विधि के पर्यावरण को नुकसान न पहुँचाने वाले ‘इको-फ्रेंडली’ हैं. यह काम प्रायः स्त्रियाँ घर में खाली समय में करती रहती हैं. वे सुबह जंगल जाकर पत्ते तोड़ने जाती हैं, शाम को गट्ठर बांधकर ले आती हैं. ६ – ७ पत्तियों में एक पत्तल बनती है और दो पत्तियों में एक दोना. यह काम लगता आसान है, मगर है श्रमसाध्य. आसपास के कस्बों या शहरों के कुछ दुकानदार उनसे २० रु. की १०० पतरी और १५ रु. सैकड़ा की दर से दोने खरीदते हैं.
झाडू या बहरी बनाने के लिए एक विशेष प्रकार की घास ‘बहारी सुकला’ जंगल से काट कर लायी जाती है, यह साल भर मिलती है. इसे सिरे मिलते हुए विशेष प्रकार से गूँथा जाता है. यह काम वृद्ध स्त्री-पुरुष ज़्यादातर करते हैं.
इसी तरह पेड़ों की छाल को बटकर रस्सी बनायीं जाती है. रस्सी धान के सूखे पैरे से भी बनाई जाती है.
इन जिलों में ‘पाम’ जाति के ‘छिन’ के पेड़ बड़ी संख्या में मिलते हैं. इनकी लम्बी-लम्बी नुकीली पत्तियों से चटाईयां या ‘टट्टे’ बनाये जाते हैं. इनका उपयोग बैठने के लिए, छाँव के लिए, दरवाज़े के रूप में किया जाता है.